वांछित मन्त्र चुनें
देवता: इन्द्र: ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

प्र॒जामृ॒तस्य॒ पिप्र॑त॒: प्र यद्भर॑न्त॒ वह्न॑यः । विप्रा॑ ऋ॒तस्य॒ वाह॑सा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prajām ṛtasya piprataḥ pra yad bharanta vahnayaḥ | viprā ṛtasya vāhasā ||

पद पाठ

प्र॒ऽजाम् । ऋ॒तस्य॑ । पिप्र॑तः । प्र । यत् । भर॑न्त । वह्न॑यः । विप्राः॑ । ऋ॒तस्य॑ । वाह॑सा ॥ ८.६.२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

फिर उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! (वह्नयः) जगत् के चलानेवाले जो सूर्य्य अग्नि आदि देवगण हैं, वे (ऋतस्य) सत्यस्वरूप आप की ही (प्रजाम्) सृष्टिरूपा प्रजा को (पिप्रतः) सब तरह से पूर्ण करते हुए (यत्) जो (प्रभरन्त) प्राणिसमूह का भरण-पोषण कर रहे हैं, वह तेरी ही शक्ति है। तथा (विप्राः) मेधाविगण (ऋतस्य) सत्य के (वाहसा) वहन से अर्थात् सत्य के पालन से जो दिन व्यतीत कर रहे हैं, वह भी तेरी ही महिमा है ॥२॥
भावार्थभाषाः - जिस सत्य नियम से सुबुद्ध होकर सूर्य्यादि सब देव जगत् को पुष्ट कर रहे हैं, उसी को जानकर मेधाविगण भी सदा परमात्म-गान में निरत होते हैं, यह जानना चाहिये ॥२॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अब परमात्मा को सत्य का स्रोत कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (ऋतस्य, प्रजाम्) सत्य के उत्पत्तिस्थान परमात्मा को (पिप्रतः) हृदय में पूरित करते हुए (वह्नयः) वह्निसदृश विद्वान् (भरन्त) उपदेश द्वारा लोक में प्रकाशित करते हैं (ऋतस्य) तब सत्य की (वाहसा) प्राप्ति करानेवाले स्तोत्रों द्वारा (विप्राः) स्तोता लोग उसके माहात्म्य को जानकर स्तुति करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - जब वह्निसदृश=तेजस्वी विद्वान् हृदय में धारण करते हुए अपने उपदेशों द्वारा उस सत्य के स्रोत=उत्पत्तिस्थान परमात्मा को लोक-लोकान्तरों में प्रकाशित करते हैं, तब स्तोता लोग उसके माहात्म्य को जानकर परमात्मोपासन में प्रवृत्त होते और उसके सत्यादि गुणों को धारण कर अपने जीवन को उच्च बनाते हैं, इसलिये प्रत्येक पुरुष को उचित है कि विद्वानों द्वारा श्रवण किये हुए परमात्मा के गुणों को धारण कर अपने जीवन को पवित्र बनावें ॥२॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! वह्नयः=जगद्वोढारः सूर्य्याग्निप्रभृतयो देवाः। ऋतस्य=सत्यस्य तव। प्रजाम्=सृष्टिरूपाम्। पिप्रतः=प्रपूरन्तः। यद्। प्रभरन्त=प्रभरन्ति प्रकर्षेण पोषयन्ति सा तवैव शक्तिरस्ति। तथा। विप्राः=मेधाविनो जनाः। ऋतस्य=सत्यस्य। वाहसा=वाहनेन यत् कालं यापयन्ति सोऽपि हे इन्द्र ! तवैव महिमाऽस्ति ॥२॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अथ परमात्मनः सत्यस्य स्रोतस्त्वं कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदा (ऋतस्य, प्रजाम्) सत्यस्य प्रजाभूतम् (पिप्रतः) हृदि पूरयन्तः (वह्नयः) वह्निसदृशा विद्वांसः (भरन्त) उपदेशादिभिर्लोके स्थापयन्ति, तदा (ऋतस्य) सत्यस्य (वाहसा) प्रापकेण स्तोत्रेण (विप्राः) स्तोतारः तं स्तुवन्ति ॥२॥